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जब पुलिस मजमें को तितर-बितर करके चली गई तो देखा गया कि घायलों की संख्या करीब तीस की थी। जिनमें अधिकतर बच्चे, कुछ स्त्रियाँ और आठ सात युवक थे। विजय को सबसे ज्यादः चोट आई थी! चोट तो कान्ती को भी थी किन्तु विजय से कम । ठाकुर साहब का तो परिवार का परिवार ही घायल था। घायलों को उनके घरों में पहुँचाया गया और अमराई में पुलिस का पहरा बैठ गया।
विजय की चोट गहरी थी, दशा बिगड़ती जा रही थी। जिस समय वह अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा था उसी समय कोर्ट से ठाकुर साहब के लिए सम्मन आया। उन्हें कोर्ट में यह पूछने के लिए बुलाया गया था कि उनका आम का बगीचा असहयोगियों का अड्डा कैसे और किसके हुक्म से बनाया गया। ठाकुर साहब भी आनरेरी मजिष्ट्रेटी का इस्तीफा, राय साहिबी का त्याग-- पत्र जेब में लिए हुए कोर्ट पहुँचे। उनका बयान इस प्रकार था ।
"मेरा बगीचा असहयोगियों का अड्डा कभी नहीं रहा है, क्योंकि मैं अभी तक सरकार का बड़ा भारी खैर-- ख्वाह रहा हूँ। मुझे सरकार की नीति पर विश्वास था, और अपने घर में बैठा हुआ मैं अखबारी दुनिया का विश्वास कम करता था। मुझे यकीन ही न आता था कि न्याय की आड़ में सरकार निरीह बालक, स्त्रियों और पुरुषों पर कैसे लाठियाँ चलवा सकती है ? परन्तु आज तो सारा भेद मेरी आँखों के ही आगे विषयले अक्षरों में लिखा गया है। मेरा तो यह विश्वास हो गया है कि इस शासन- विधान में, जो प्रजा के हितकर नहीं हैं, अवश्य परिवर्तन होना चाहिए । हर एक हिन्दुस्तानी का धर्म है कि वह शासन-सुधार के काम में पूरा पूरा सहयोग दे। मैं भी अपना धर्म पालन करने के लिए विवश हूँ और यह मेरी राय साहिबी और आनरेरी मजिष्ट्रेटी का त्याग-पत्र है। ठाकुर साहब तुरंत कोर्ट से बाहर हो गए।
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दूसरे हो दिन से उस अमराई में रोज ही कुछ आदमी राष्ट्रीय गाने गाते हुए गिरफ्तार होते। और साठ साल के बूढ़े ठाकुर साहब को, सरकार के इतने दिन की खैर- ख्वाही के पुरस्कार स्वरूप छै महीने की सख़्त सजा और ५००) का जुर्माना हुआ। जुरमाने में उनकी अमराई नीलाम कर ली गई। जहाँ हर साल बरसात में बच्चे झूला झूलते थे वहीं पर पुलिस के जवानों के रहने के लिए पुलिस-चौकी बनने लगी।